Sunday, January 24, 2010

जीवन संकल्प (attitude of life)


जीवन को अब तो जीने का संकल्प कर लिया ,इच्छाओं को भी अपनी हमने अल्प कर लिया
सबने सफल होने को रब का नाम है लिया,हमने तो अपना नाम ही शिवम् धर लिया
हमने तो अपना नाम ही शिवम् धर लिया ॥
बाधाओं से ये देखो इन्सान है घिरा मदिरा से मुक्त होने का भी काम न किया
कहता है मस्त होके ये जीवन है जी रहा ये जीना भी क्या जीना ये पल पल मर रहा ।
ये जीना भी क्या जीना ये पल पल मर रहा ॥

संकीर्ण सोच इसकी संकीर्ण चाल है ,दूजे की जीत इसकी जाने क्यों हार है
ये सोच के ही जीवन में जहर भर रहा ,अपने पे तो साइकल नहीं उसपे तो कर है ।
अपने पे तो साइकल नहीं उसपे तो कार है ॥
इर्ष्या को कर दे दूर तू जीवन से कर परे और हाथ जोड़ उसके तू धन्यवाद दे
हर चीज़ जो मिली है ये उपकार है उसका स्वीकार कर ये तुझको अथक प्यार है उसका ।
स्वीकार कर ये तुझको अथक प्यार है उसका ॥

फिर देख ये जीवन तेरा क्या रंग लायेगा खुश होगा तू सदा और दुःख दूर जाएगा
ये ऐश्वर्या है ऐसा कुबेर धन समक्ष,तेरा भी अक्ष होगा जन जीवन में प्रत्यक्ष ।
तेरा भी अक्ष होगा जन जीवन में प्रत्यक्ष ॥
जीवन को अब तो जीने का संकल्प कर जरा इच्छाओं को भी अपनी अब तो अल्प कर ज़रा
कर्मण्य व्यधिकरास्ये ये मंत्र है तेरा जीवन में ढाल इसको और कर्म कर जरा ।
जीवन में ढाल इसको और कर्म कर सदा ॥

जीवन को अब तो जीने का संकल्प कर जरा ।
इच्छाओं को भी अपनी अब तो अल्प कर जरा ।
जीवन को अब तो जीने का संकल्प कर ज़रा॥

---शिवम् भारद्वाज ---

Saturday, January 9, 2010

आज सोचा




के हाँ आज सोचा के उकेर दूं अंतरमय सितारों को
उठाऊं कलम और सजा दूं हृदयस्थ नजारों को
के लिखने बैठा ही था कहानी अपनी
चेतन और अचेतन संघर्ष के मध्यस्थ
विचारों की दृढ़ता और भावुकता से परिपूर्ण कांपते से हस्त
शोध करता चित्त के मेरा अस्तित्व क्या है
परिणाम था के जीवन में तुने किया क्या है
क्या विषय विशेष है तेरा धरा के प्रति
क्या तू इस पर नहीं है भार की अति

के कम्पित सी वाणी में उत्तरहीन था मैं
उत्तर को आतुर भावुक और कृत्यों से विहीन था मैं
के शर्मसार था,के एक युवा हूँ और फिर भी क्षीण हूँ
के हाँ इस तार्किक अवं गतिमय समाज में गतिहीन हूँ मैं

के पहुंचा लेकर इस प्रश्न को मित्रों के समक्ष
जिनका दुलारा था मैं,और जहाँ प्रशिद्ध था मेरा भी अक्ष
के पूछता हूँ तुमसे क्या किया है हमने देश के प्रति
गर्व से बोले सब मेरा देश है महान और अमिट है संस्कृति
औरों ने हमारी संस्कृति से क्या कुछ नहीं लिया है
हमारे ही तो वैद हैं और जीरो भी हमी ने तो दिया ही

हंसा मैं खुद पे के क्यूँ हैं संतुष्ठ हम और कौनसी संस्कृति
सत्य है ये की हम जैसी पीढ़ी ही है इसकी क्षति
इतना गुरूर है अपनी संस्कृति पे तो क्यों इससे दूर जा रहे हैं
क्यों पश्चिम में ढल के,वस्त्र उतरने को आतुर नग्न हुए जा रहे hain

आज चरणपट को footwears और मदिरा पिने को cheers कहा जा रहा है
हास्यापद तो ये है footwears शीशो से सजी mall में रखा जा रहा है
और जीवनदात्री सब्जियों को आज भी footpath से ख़रीदा जा रहा है
क्यों नहीं समझते हम की सचाई अपनी सरलता में है
जितना धरा के पास हैं ,उतना अपना विकास है
ये धरा की धुल है जो हमें जीवन देती है
jeene को शुद्ध वायु और खाने को भोजन देती हैं

kyu duje की सभ्यता को हम खुद से ज्यादा तोलते हैं
sabko piche karte हैं जब अपने पर खोलते हैं
ये मैं नहीं कहता हूँ ये हमारे हुनर बोलते हैं
hamare hunar bolte हैं.......